सब संग्रवारी मन सोचे लगिन कि,
पूक, कोन मेर खेलबो, विचार जमगे।
जमुना के चातर कछार में,
जाके खेल मचाई।
दुरिहा के दुरिहा है अउ,
लकठा के लकठा भाई।।
केरा ला शक्कर, पागे अस,
सुनिन बात संगवारी।
कृष्ण चन्द्र ला आगू करके,
चलिन बजावत तारी।।
धुंघरू वाला झुलुप खांघ ले,
मुकुट, मोर के पाँखी।
केसर चन्दन माथर में खौरे,
नवा कवंल अस आंखी।।
करन के कुंडल छू छू जावै,
गोल गाल ला पाके।
चन्दा किरना साही मुसकी,
भरें ओंट में आके।।
हाथ में बंसुरी पांव में पैजन,
गला भरे माला में।
सब के खेल देखइया मरगै,
है, पर के माला में।।
जरीदार के कछनी काछे,
पंछा कमर लपेटा।
बादर के बिच इन्द्रधनुष अस,
लगै नंद के बेटा।।
कंभू बजावें बास बंसुरीया,
कबहूं गाना गावैं।
कभू हंसे अउ कभू हंसावै,
नाचत ठुमकत जावै।।
जेकर कोती उलट के देखै,
तेला अपन बनावैं।
अड़ बढि़या छलबलिया कान्हा,
गप सप खूब लड़ावैं।।
उंच नीच के ओ बखत,
रहिस न कुछु विचार।
एक दई के सब गढे,
राजा रंक गंवार।।
– गोविन्दराव विट्ठल